गुरुवार, २७ फेब्रुवारी, २०१४


मन और बीमारी का संबंध
अगर आप बीमार पड़े हैं और आपको पता चला कि डाक्टर ने ऐसा कहा है कि बिलकुल ठीक हैं, कोई खास बीमारी नहीं है तो तत्काल आपके भीतर बीमारी क्षीण होने का अनुभव आपको हुआ होगा-तत्काल!
आपने कभी ख्याल किया है, बीमार पड़े हों बिस्तर पर-सभी कभी न कभी पड़ते हैं-आपने कभी ख्याल किया है कि बीमार पड़े हों, बड़ी तकलीफ मालूम पड़ती है, बड़ी बेचैनी है, बड़ी भारी बीमारी है। डाक्टर आया। डाक्टर के बूट बजे, उसकी शक्ल दिखाई दी। उसका स्टेथकोप! थोड़ी बीमारी एकदम उसको देखकर कम हो गई! अभी उसने दवा नहीं दी है। डाक्टर ने थोड़ा ठकठकाया, इधर-उधर ठोंका-पीटा। उसने अपना स्पेशलाइजेशन दिखाया कि हां! फिर उसने कहा कोई बात नहीं, बहुत साधारण है, कुछ खास नहीं है। दो दिन की दवा में ठीक हो जाएंगे। फिर उसने जितनी बड़ी फीस ली, उतना ही अर्थ मालूम पड़ा कि यह बात ठीक होगी ही।

आपने ख्याल किया है, डाक्टर की दवा और उसका प्रिस्क्रिप्शन आने में थोड़ी देर लगती है, लेकिन मरीज ठीक होना शुरू हो जाता है। मन ने अपने को सुझाव दिया कि जब इतना बड़ा  डाक्टर कहता है, तो ठीक हैं ही। अगर आप बीमार पड़े हैं और आपको पता चला कि डाक्टर ने ऐसा कहा है कि बिलकुल ठीक हैं, कोई खास  बीमारी नहीं  है तो तत्काल आपके भीतर बीमारी क्षीण होने का अनुभव आपको हुआ होगा-तत्काल! एक ताजगी आ गई है। बुखार कम हो गया है। बीमारी ठीक होती मालूम पड़ती है। अभी कोई दवा नहीं दी गई है? तो यह परिणाम कैसे हुआ है?

पश्चिम में डाक्टर एक नई दवा पर काम करते हैं, उस दवा को कहते हैं धोखे की दवा, प्लेसबो। बडे हैरान हुए हैं। दस मरीज हैं, दसों एक बीमारी के मरीज हैं। पांच को दवा दी और पांच को सिर्फ पानी दिया। बड़ी मुश्किल है। दवा वाले भी तीन ठीक  हो गए है पानी वाले भी तीन ठीक हो गए! अब दवा को क्या कहें? यह दवा थी ही नहीं; यह सिर्फ पानी था। लेकिन दवा वाले भी, पांच में से तीन ठीक हो गए हैं और ये भी पांच में से तीन ठीक हो गए हैं, पानी वाले! अब क्या कहें?

मनोविज्ञान तो कहता है कि अब तक कि जितनी दवाएं हैं दुनिया में, वे सिर्फ सजेशन का काम करती हैं। असली परिणाम सजेशन का है, सुझाव का है। असली परिणाम दवा के तत्व का नहीं है। इसीलिए तो इतनी पैथी चलती हैं। इतनी पैथीचल सकती हैं? पागलपन की बात है। बीमारी अगर होगी, तो इतनी पैथी चल सकती हैं वैज्ञानिक अर्थो में?। 

होम्योपैथी भी चलती है! और होम्योपैथी के नाम पर करीब-करीब शक्कर की गोलियां चलती हैं। कम से कम हिंदुस्तान में बनी तो शक्कर की गोली ही होती हैं। शक्कर भी शुद्ध होगी, इसमें संदेह है। बायो-केमिस्ट्री चलती है। आठ तरह की दवाओं  से सब बीमारियां ठीक हो जाती हैं! नेचरोपैथी चलती है; दवा वगैरह की कोई जरूरत नहीं है! पेट पर पानी की पटटी या मिट्टी की पटटी से बीमार ठीक होते हैं! जंत्र, मंत्र, तंत्र-सब चलता है। जादू टोना चलता है। सब चलता है। क्या, मामला क्या है? और आदमी सबसे ठीक होता है!

आदमी के ठीक होने के ढंग बड़े अजीब हैं। शक इस बात का है कि आदमी की अधिक बीमारियां भी उसके सुझाव होती हैं कि उसने माना है कि वह बीमार हुआ है।  और आदमी का अधिकतर स्वास्थ्य भी उसका सुझाव होता है कि उसने माना है कि वह ठीक हुआ है। बीमारियां भी बहुत मायनों में झूठी होती हैं, मन का खेल। लेकिन मन आटो-सजेस्टिबल है, अपने को सुझाव दे सकता है।

उस तरह की शांति झूठी है, जो कुवे की पद्धति से आती है। जो कहती है कि तुम शांत हो रहे हो। इसको माने चले जाओ, कहे चले जाओ, दोहराए चले जाओ-शांत हो जाओगे।

जरूर शांत हो जाएंगे। लेकिन वैसी शांति सिर्फ सतह पर दिया गया धोखा है। वह शांति वैसी है, जैसे नाली के ऊपर हमने फूलों को  बिछा दिया हो, तो क्षणभर को धोखा हो जाएं। हां, किसी नेता की पालकी निकलती हो सड़क से, तो काफी है। चलेगा। क्षणभर को धोखा हो जाए, कोई नाली नहीं है, फूल बिछे हैं। लेकिन घड़ीभर बाद फूल कुम्हला जाएंगे, नाली की दुर्गंध फूलों के पार आकर फैलनी लगेगी। थोड़ी देर में नाली फूलों कों डुबा लेगी।

झूठी शांति हो सकती है-सुझाव से, सम्मोहन से। और सम्मोहन की हजार तरह की विधियां दुनिया में प्रचलित हैं, जिनसे आदमी अपने को मान ले सकता है कि मैं शांत हूं। और भी रास्ते हैं। और भी रास्ते हैं, जिनसे आदमी अपने को शांत करने के ख्याल में डाल सकता है। लेकिन उन रास्तों से शांत हुआ आदमी भीतर नहीं जा सकेगा। जबर्दस्ती भी अपने को शांत कर सकते हैं। जबर्दस्ती भी अपने को शांत कर सकते हैं। अगर अपने से लड़े ही चले जाएं, और जबर्दस्ती अपने ऊपर किए चले जाएं सब तरह की, तो अपने को शांत कर सकते हैं।

लेकिन वह शांति होगी बस, जबर्दस्ती की शांति। भीतर उबलता हुआ तूफान होगा। भीतर जलती हुई आग होगी। ठीक ज्वालामुखी भीतर उबलता रहेगा और ऊपर सब शांत मालूम पड़ेगा।

ऐसे शांत बहुत लोग हैं, जो ऊपर से शांत दिखाई पड़ते हैं। लेकिन इनके भीतर बहुत ज्वालामुखी है, उबलते रहते हैं। हां, ऊपर से उन्होंने एक व्यवस्था कर ली है। जबर्दस्ती की एक डिसिप्लिन, एक आउटर डिसिप्लिन, एक बाहृय अनुशासन अपने ऊपर थोप लिया है। ठीक समय पर सोकर उठते हैं। ठीक भोजन लेते हैं। ठीक बात जो बोलनी चाहिए, बोलते हैं। ठीक शब्द जो पढ़ने चाहिए, पढ़ते हैं। ठीक समय सो जाते हैं। जिस प्रभाव में उनको जीना है, शांति में जीना, उसका धुआं अपने चारों तरफ पैदा रखते हैं। तो फिर एक-एक सतह ऊपर की पर्त शांत दिखाई पड़ने लगती है और भीतर सब अशांत बना रहता है।
-ओशो
पुस्तकः गीता दर्शन-3
प्रवचन नं. 7 से संकलित